गढ़ गणेश जी गढ़ गणेश देवालय जो जयपुर से उत्तर की ओर उच्च पर्वत शिखर पर स्थित है। नारगढ़ की पहाड़ी से सटी पहाड़ी पर स्थापित है छोटी चौपड़ से ब्रह्मपुरी होते हुए गेट और की क्षत्रियों के पास से एक रास्ता कदम कुंडी को जाता है व उसके पास से शुरू होती है सीढ़िया जो दुरूह चढ़ाई के बीच में से दो मार्ग में विभाजित हो जाती है।
एक मार्ग सीढ़ियो से सीधे ही मंदिर को जाता है व दूसरा घाटी मार्ग है जिसमें चढ़ाई के बीच में गणेश पोल के दरवाजे के पहले भोमिया जी का प्राचीन मंदिर है वर्ष के दिनों के अनुसार बनी हुई 365 सीढ़ियो की दुरूह चढ़ाई के बाद मंदिर परिसर में प्रवेश करते ही असीम शांति का अनुभव होता है। एक रास्ता नहर के गणेश जी के पास से होता हुआ सीधे गढ़ गणेश मंदिर को जाता है जो पहाड़ी रास्ता है इस रास्ते के बीच में भैरव जी व हनुमान जी व शिवजी के मंदिर बने हुए हैं। यह रास्ता पूर्णतः पहाड़ी पगडंडी का है और प्राचीन रास्ता है। इसी प्रकार एक रास्ता मंदिर के पीछे स्थित कागदी I वाडे से होता हुआ गढ़ गणेश मंदिर पहुंचता है जिसमें पगडंडी बनी हुई है इस रास्ते के बीच में प्राचीन शिव जी का मंदिर बना हुआ है जिसमें शिव जी सपरिवार विराजमान है शिवलिंग पर एक उभरा हुआ नाग स्पष्ट दिखाई देता है भगवान शिव के ऐसे दर्शन कम स्थानों पर ही मिलते हैं
यहां स्थापित गणपति का विग्रह पुरुष आकृति है जो बाल स्वरूप है।( बिना सूंड वाले गणपति) जब पार्वती जी ने अपने मैल से पुरुष आकृति बनाकर उसमें जीवन डाला व अपने द्वार पर बिठाया व जब शिव जी मैं अंदर जाना चाहा तो उनके मना करने पर दोनों में युद्ध हुआ और शिव जी ने उनका मस्तक त्रिशूल से काट दिया व बाद में हाथी का सिर लाकर लगाया उसके पहले का स्वरूप है।
मंदिर की स्थापना जयपुर की स्थापना के पहले की है। महाराजा सवाई जय सिंह जी ने अश्वमेघ करवाया। उसमें इन गणपति का अभिषेक व विशेष पूजा-अर्चना हुई। तत्पश्चात यज्ञ संपन्न होने पर पहाड़ी पर मंदिर बनवा कर इन गणपति को स्थापित किया गया। इसके पश्चात जयपुर की स्थापना हुई। मंदिर में गणपति महाराज को इस प्रकार प्रतिष्ठित किया गया है की चंद्र महल( सिटी पैलेस) से दूरबीन से महाराजा दर्शन करते थे। यह मूर्ति भारतवर्ष की एक मात्र मूर्ति है जो मानव आकृति में है पुरुष आकार यानी बालस्वरूप। अन्य स्थानों पर स्थापित मूर्तियां गणेश जी का परंपरागत स्वरूप सूंड वाले लिए हुए ही होती है।
आषाढ़ शुक्ला द्वितीया को गणपति का पाठ उत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। गणपति का दुग्ध अभिषेक व पंचामृत अभिषेक होता है।
भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी के एक दिन पहले गणेश जी का मेला चालू होता है जो पांच दिन तक चलता है। गणेश चतुर्थी के एक दिन पहले गणेश जी के मेहंदी चढ़ा कर सिंजारा मनाया जाता है व गणेश चतुर्थी को प्रातः दुग्ध अभिषेक व पंचामृत अभिषेक होता है। इस दिन गणपति वस्त्र धारण नहीं करते हैं। पत्र पुष्प माला का ही श्रृंगार होता है। यहां का प्रमुख मेला ऋषि पंचमी को लगता है। यह गणपति का पहला मंदिर है जहां पंचमी को मेला लगता है। जिसमें प्रातः काल से मध्य रात्रि मटक श्रद्धालु दर्शनार्थ आते हैं। दीपावली के बाद आने वाले पहले बुधवार को यहां अन्नकूट का आयोजन किया जाता है व पोष के महीने में आखरी बुधवार को पोष बड़ों का आयोजन होता है। जिनमें हजारों लोग प्रसादी ग्रहण करते हैं। इसके अलावा हर महीने के पुष्य नक्षत्र को सैकड़ों व्यक्ति यहां गणपति का दुग्ध अभिषेक किया करते हैं।
मंदिर परिसर में ही एक टाका( पानी का टैंक) बना हुआ है जो वर्षा के जल से भरता है इसके पानी से गणपति का पूजन अर्चन होता है मंदिर के महंत आने वाले भक्तों से अपनत्व से बात करते हैं जिसमें भक्तों को एक अपनेपन का एहसास होता है।
मंदिर की व्यवस्था औदिच्य परिवार स्थापना के समय से पीढ़ी दर पीढ़ी पुश्तैनी करता आ रहा है। मंदिर के वर्तमान पीठाधीश्वर श्री प्रदीप जी औदिच्य हैं। श्री प्रदीप जी औदिच्य गढ़ गणेश मंदिर के महंत के आसन पर आसीन 13 वे महंत है। इनके सहयोग में लघु भ्राता महेश जी मेहता व इन दोनों के पुत्र गौरव मेहता और आनंद मेहता भी सेवा में है।
मंदिर प्रातः 7:00 बजे से 12:00 बजे व शाम को 4:00 से से 8:00 बजे तक दर्शनार्थ खुला रहता है।
मंदिर में श्री विग्रह का चित्र खींचना मना है बड़ी चौपड़ स्थित ध्वजाधीश गणेश मंदिर भी श्री गढ़ गणेश मंदिर के अधीनस्थ है।
महंत प्रदीप औदिच्य
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